यशोदा गुर्जर
सोनू बताती है कि गांव से कम से कम 20 छात्राएं नियमित रूप से स्कूल जाती हैं. लेकिन माहवारी के समय उन्हें सुविधाओं की कमी के कारण घर पर ही रुकना पड़ता है. जिससे उनका क्लास छूट जाता है और वह सिलेबस में पीछे रह जाती हैं. हालांकि धुवालिया नाडा से करीब डेढ़ किमी दूर मदार गांव में भी राजकीय उच्च विद्यालय है, लेकिन वहां जाने और आने का रास्ता रसूलपुर से भी अधिक सुनसान है. इसीलिए अभिभावक वहां अपनी लड़कियों का एडमिशन नहीं कराते हैं. जाह्नवी बताती है कि "स्कूल में केवल सुविधाओं की ही कमी नहीं है, बल्कि हमारे साथ जातिगत भेदभाव भी किया जाता है. रसूलपुरा में उच्च जातियों की संख्या अधिक है और स्कूल में भी इसी जाति से संबद्ध शिक्षकों और विद्यार्थियों की बहुलता है, ऐसे में वह हमें पढ़ाने में बहुत अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं. वह हमें कक्षा में बोलने भी नहीं देते हैं."
जाह्नवी आरोप लगाती है कि "जब स्कूल में उच्च जातियों के छात्र-छात्राएं हमारे साथ जातिगत भेदभाव करते हैं और जब हम इसकी शिकायत शिक्षकों से करते हैं तो वह इस पर ध्यान नहीं देते हैं. जब अभिभावक स्कूल आकर इसकी शिकायत करते हैं तो उस समय शिक्षक कुछ नहीं बोलते हैं, लेकिन उनके जाने के बाद हमें डांटा जाता है कि स्कूल की बात घर पर मत बताया करो." वह बताती है कि एक दो बार स्कूल आते या जाते समय रसूलपुरा के उच्च जातियों के लड़के यहां की लड़कियों के साथ छेड़छाड़ भी कर चुके हैं. जिसकी बाद अभिभावक स्तर पर इस मुद्दे को उठाया गया, जिससे दोनों इलाकों में तनाव भी हो गया था. इससे उल्टा लड़कियों की शिक्षा पर ही असर पड़ा. अभिभावक हमारी सुरक्षा के प्रति बहुत चिंतित रहते हैं. यही कारण है कि अब इस गाँव की लड़कियों को अकेले स्कूल जाने आने नहीं दिया जाता है.
राज्य सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की औसत साक्षरता दर मात्र 45.8 प्रतिशत है. इसमें अजमेर जिला के ग्रामीण क्षेत्रों में औसत से भी कम मात्र 41.3 प्रतिशत है. हालांकि 2001 की जनगणना के 32.7 प्रतिशत की तुलना में यह काफी अच्छा है, लेकिन इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है. इसके लिए ज़रूरी है कि स्कूलों में किशोरियों के लिए बुनियादी सुविधाओं को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए. साथ ही स्कूल का ऐसा वातावरण तैयार किया जाए जहां वह आसानी से शिक्षा प्राप्त कर सकें. दरअसल शिक्षा हमें जातिगत भेदभाव से दूर करती है, लेकिन सच तो यह है कि हाशिए पर खड़े समुदाय और अति पिछड़े समाज के बच्चों को आज भी इसे पाने के लिए संघर्ष करनी पड़ रही है. उन्हें कई प्रकार के भेदभावों से गुज़रना पड़ रहा है. उनके हौसले को बढ़ाने की जगह मनोबल को तोड़ने का काम किया जा रहा है.
जबकि यह शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन का कर्तव्य बनता है कि वह स्कूल का ऐसा वातावरण बनाएं जहां न केवल भेदभाव का कोई स्थान न हो बल्कि बच्चे शिक्षकों के साथ बिना भय के अपने मन की बात भी साझा कर सकें. माहवारी किशोरियों की ज़िंदगी से जुड़ी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन जब स्कूल में इसी से संबंधित प्रबंध नहीं होंगे, उन्हें शौचालय की सुविधा नहीं मिलेगी तो हो सकता है कि भविष्य में किशोरियों के ड्राप आउट की संख्या बढ़ जाए. आज जब हम स्वतंत्र हैं, सभी को शिक्षा प्राप्त करने का पूरा अधिकार है इसके बावजूद कई ऐसे गांव, बस्ती और कस्बे हैं जहां भेदभाव तो कहीं बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण इस अधिकार का हनन हो रहा है. जिसका सबसे पहले नकारात्मक प्रभाव किशोरियों की शिक्षा पर पड़ता है. (चरखा फीचर)
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